Monday, January 28, 2019

पूर्वजों से हुई एक मुलाकात

 पिछले दिनों भाषा से संबंधित एक कार्यशाला में भाग  लेने के लिए प्रो. गणेश नारायण देवी के संस्थान आदिवासी अकादमी तेजगढ़ जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। हम लोगों के इस ग्रुप में ….सदस्य थे।हम इस अकादमी में आदिवासी भाषाओं और उन्हें बचाए रखने के लिए किए जा रहे उपायों के बारे में जानने के उद्देश्य से गए थे। तेजगढ़ के पर्वतीय इलाके में स्थित भाषा अकादमी का परिसर नैसर्गिक प्राकृतिक सौन्दर्य और जैवविविधता से संपन्न है।तेजगढ़ आदिवासियों की विरासत का अद्भुत नमूना है। आज भी उन पर्वतों में ऐसी अनेक गुफाएँ हैं, जिनमें हमें लगभग आरंभिक मानव सभ्यता के चिन्ह मिलते हैं। कई गुफाओ मे आदिमानव द्वारा सिरज दिए गए चित्र है जो हमारे पूर्वजों के अस्तित्व और उनके सहज जीवन बोध की गवाही देते है।ऐसी ही एक पहाड़ी चढ कर और गुफा के भीतर  पेट के बल धँस कर मैं और मेरे साथी अंदर पहुँचे थे, जहाँ बस किसी तरह सीधे खड़ा हुआ जा सकता था। गुफा के भीतर जगह बस इतनी कि तीन चार लोग बैठ सकें और जगह भी समतल नहीं…ठीक आदिवासियों के जीवन की तरह कठिन और कठोर! किंतु वहाँ दीवार पर चित्र बने थे, जो अभ्यासकों के अनुसार 15,000 वर्ष पुराने हैं। उन चित्रो को देखते हुए मैं अपने पूर्वजों के साथ जो कम से कम पंद्रह हजार साल पहले वहाँ रहते थे,  एक अदृश्य बंधन को महसूस करने लगी । चित्रों का कमाल जिसने, यहाँ रहने वाले मेरे आदि पूर्वजो के साथ मुझे गोया किसी धागे मे बांध लिया।
         

मैंने जब उन दीवारों को होले से छुआ तो  ऐसा लगा कि मेरे पूर्वजो का स्पर्श मुझ तक पहुँच रहा है। वाह पत्थर की इन दीवारों ने उन स्पर्शों को अब तक संभाल कर रखा है।मै उसी जमीन पर खड़ी हूँ,जहाँ वे कभी खड़े हुए थे।मै उसी हवा मे साँस ले रही हूँ, जिस हवा मे वे साँसे लिया करते थे। फिर  लगा कि ये चित्र बनाते वक्त  उन्होंने क्या सोचा होगा? किस चिज से बनाए होंगे ये चित्र,जो 15000 साल बाद भी उनकी कहानी बताते हुए साबुत हैं आज तक? क्या बताना चाहते होंगे इस माध्यम से वे? अपने बच्चो के लिए सोचा होगा उन्होने,लेकिन क्या उन्हें इस बात का अहसास था कि हजारों  सालों बाद इन चित्रों को खोजते हुए कोई वहाँ पहुंचेगा? 

और फिर मुझे अनायास सुमन केशरी एक की कविता, जो  उनकी “मोनालिसा की आँखें” संग्रह में “ मेरे पूर्वजों” शीर्षक से संकलित है, याद आई। सचमुच वैसा ही तो मैंने महसूस किया था, उन चित्रों को देखते, गुफा की दीवार का स्पर्श करते जैसे कि कवि ने महसूस किया था। मैंने अपने साथियों को इस कविता के बारे में बताया और उसका पाठ किया।कविता इस प्रकार है:  

 

 मेरे पूर्वजों

 

मैं 

एक बार

बस 

केवल एक बार

छूना चाहती हूँ

तुम्हारी उंगलियों को 

अपनी उंगलियों से

तुम्हारे गाल होंठ और बालों को

महसूसना चाहती हूँ

देखना चाहती हूँ तुम्हारी आंखों को 

जिनमें मेरा अक्स

सौ परदे पार

बीज-सा रुपा है

मेरे पूर्वजों...

 

मेरे पूर्वजों

मैं उस धरती पर एक कदम

रखना चाहती हूँ

जहाँ पड़े थे तुम्हारे पहले कदम

उस धार के बूंद भर जल को पीना चाहती हूँ

जहाँ बुझी थी 

तुम्हारी प्यास

 

एक बार उस पवन को 

देह में महसूसना चाहती हूँ

जिसमें सूखा था 

तुम्हारा पसीना

 
क्या तुम वे शब्द मुझे सौंपोगे

मेरे पूर्वजों?

जिनसे मैं तुम तक

पहुँच सकूँ

एक बार

बस

एक बार…

 

क्या इस कविता को पढ़ते हुए, मेरे अनुभवों से गुजरते हुए आपको भी कुछ कुछ वैसा ही नहीं महसूस हो रहा?

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